महाराज खेतसिंह खंगार जयंती पर विशेष-:
महाराज खेतसिंह खंगार जयंती पर विशेष-:
०-- बाबूलाल दाहिया
समस्त आदरणीय समस्त स्वजातीय बंधुओ को प्रणाम।
हमारे सामने एक टेविल रखी है। यदि हम इसे दशों हजार मीटर लम्बी चौड़ी एक पृथ्वी मानलें तो इसमें भारत का क्षेत्रफल मात्र एक वर्ग बित्ते का होगा। और इस पृथ्वी के अगर अब तक कल्पना किये धर्मो को देखें उनके भगवानों को देखें तो वह सैकड़ो की संख्या में चले जायगें।
क्योकि वह खुद के जन्मे भगवान नही बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में कल्पित लोगो के भगवान हैं। और यही स्थिति तमाम धर्मो की भी हैं। यही कारण हैं कि जितने भगवानों की कल्पना अन्य क्षेत्रों वालो ने की वह हमारे भगवान नही हैं ?और जो हमारे क्षेत्र के कल्पित भगवान है वे अन्य क्षेत्रों के लोगो के भगवान नही बन सके।
बहरहाल समस्त पृथ्वी में तीन ही ऐसे धर्म हैं जो सर्वाधिक हैं। वह हैं--
1-- ईसाई
2- इस्लाम
3-- बौद्ध
और यह इसलिए अधिक दूर दूर तक फैले कि तीनों समानता और आपसी भाईचारा वाले धर्म थे।
पर हम यदि भारत की बात करे तो यहां 4 हजार वर्ष के पहले न तो कोई धर्म था न ईश्वर। यहां आदिवासी कबीले थे जो किसी भगवान के बजाय अपने- अपने पुरखों एवं पुरखिनो को ही देवी एवं बीर के रूप में पूजते और उन्हें नरबलि पशुबलि चढ़ाते थे। यही कारण है कि आज भी यदा कदा नर बलि , पशुबलि एवं जीभ काट कर चढ़ाने की परम्पराएं कभी कभार दिख जाती है।
अच्छर ज्ञान नही था अस्तु समस्त उपासना बिधि मौखिक थी। पहली बार अक्षरों का उपयोग हमें अशोक काल मे बौद्ध धम्म में मिलता है जिसकी धम्म लिपि ब्राम्ही और खरोष्टी है।
बाद में 6वी सदी में देव नागरी लिपि विकसित हुई तभी 18 पुराणों की रचना हुई जिनमे जितने पुराण उतने ही भगवान भी हमारे सामने आते चले गए। उसके पहले वेद और उपनिषद थे जो मौखिक परम्परा में थे और उस समय का वैदिक राजा मात्र इन्द्र हैं जिसके बीरता की प्रशंसा वेदों में की गई है। पर अग्नि और जल के देवता भी थे जिन्हें यज्ञ कुण्ड में पशुओं को काट कर बलि दी जाती थी।
अब प्रश्न यह उठता है कि हम दाहिया , आरख, खंगार , मिर्धा आदि कौंन हैं। क्यो कि भारत मे मनुष्य की तीन तरह की प्रजातियां हैं। अगर भारत मे बसने वालों की पड़ताल करें तो यहां वर्तमान में मनुष्य की तीनों प्रजातियां मौजूद हैं।
1-- यहां के मूल निवासी जो यहां की जलवायु के अनुसार (धूम्र वर्णी कज्जल केशी) थे।यह दो तरह के थे उत्तर में आष्टिक मुण्डा बसते थे और दक्षिण में द्रविण।
2-- हिमालय के पहाड़ी भाग में रहने वाले मंगोल जिनका कद बौना रंग ताम्र वर्णी माथा चौड़ा आँखे बाहर को उभरी हुई। बस यही दोनों प्रजाति यहां के मूल निवासी थे।
3-- आर्य प्रजाति ।
इनका रंग मध्य एशिया की जलवायु के अनुसार था। क्योकि वह मध्य एशिया की जलवायु में जन्मी (धवल वर्णी पिंगल केशी) जाति थी जो 4 हजार से 3 हजार वर्ष के बीच चरवाहे के रूप में यहां आई । और बाद में यहां के समस्त संसाधनों में कब्जा कर समस्त भारत मे छा गई।यह है हमारा भारतीय समाज।
पर जब दो संस्कृतियां लम्बे समय तक समानांतर चलती हैं तो एक दूसरे को प्रभावित भी करती हैं । यही कारण है कि आर्यो के बहुत सारे देवी ,देवता ,भगवान य यू कहें कि उनके पुरखे यहां के मूल निवासियों के देवालयों में चले गए और मूल निवासियों के कुछ देवता पुरखे आर्य मूल के लोगो के आराध्य भी बन गए।
बाद में मैदानी भागों में आर्यो और मूल निवासियों में विवाह सम्बन्ध भी हुए जिससे भरपूर रक्त सम्मिश्रण हुआ। उसका सब से बड़ा प्रमाण मूल निवासी निषाद वंशी कंश की बहन देवकी का विवाह आर्य मूल के बाशुदेव के साथ हुआ जिनके पुत्र कृष्ण अपने नाना कुल के अनुसार काले रंग के हुए। परन्तु जो मूल निवासी सुदूर जंगलो में रहे वह आज भी अपने आदिम अवस्था मे हैं।
अब अगर भारतीय राजाओ की बात करे तो यहां पहले मूल निवासी राजा ही रहे हैं। जिनमे आष्टिक मुण्डा समूह य द्रविण मूल के कोल भील निषाद, गोड़ आदि य फिर मैदानी भाग में बसने वाले यादव, भर, लोधी आरख, खंगार, पटेल ,गड़रिये आदि।
पर बौद्ध धम्म के ब्यापक प्रचार के कारण जब ब्राम्हण धर्म जीर्ण शीर्ण होगया और बहुत सी शक ,हूण आदि खुंखार जातियां उन्ही जैसी धवल वर्णी मध्य एशिया वाली यहां आईं तथा कुछ स्थानों में सत्ता भी स्थापित करली तो ब्राम्हणो ने सभी को यज्ञ के द्वारा पवित्र कर क्षत्रिय य राजपूत की संज्ञा देदी। फिर जो भी राजा बने ब्राम्हणो से अपनी वंशावली लिखवा कर अग्नि वंशी, सूर्य वंशी, चन्द्र वंशी आदि बनते चले गए। यह एक बैज्ञानिक ऐतिहासिक सच्चाई है।
पर अब प्रश्न यह है कि आरख खंगार इनमे से क्या हैं?
आरख खंगार यहां के मूल निवासी ही हैं। क्योकि जिस प्रकार मध्य एशिया से आया ब्राम्हण ( यादव ,लोभी, कुर्मी, गोड़) आदि सभी राजाओ को शूद्र मानता था उसी प्रकार आरख खंगारों को भी। इससे सिद्ध है कि आरख खंगार यहां के मूल निवासी ही हैं। फिर खंगारों का इतिहास तो ईसा पूर्व 5 सौ वर्ष पहले का है।
क्यो कि ईसापूर्व 500 वर्ष पहले जन्मे आचार्य पाणिनि अपनी आष्ठाध्यायी में कहते हैं कि,
शस्त्रजीवी खङ्ग ग्राहो, वाण जेया धनुर्धरः,
पार्श्व धारी परशु ख्यातः बिबिध आरन्डे स्मृयः
अस्तु सिद्ध है कि आयुध जीवी खंगार तब भी अपनी बहादुरी के लिए जाने जाते थे। पर आरखों का इतिहास 5 वी सदी गुप्त काल से मिलता है। क्योकि देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि " गुप्त काल मे घड़ो में ब्यापार चलता था। तथा ब्यापारी य उनके श्रमिक जब लेजाते तो रास्ते मे लुटेरे लूट लेते थे। अस्तु उन ब्यापारियों ने सुरक्षा बल रखना शुरू किया जिन्हें अपनी संस्कृत भाषा मे वे( आरक्षक) कहते थे । बाद में पाली में (आरक्खी) व कालांतर में वही नाम आरख होगया।"
पर उनके मूल में शायद खङ्ग धारी खंगार ही रहे होंगे? और इसी तरह डाहल क्षेत्र से आने वाले दाहिया दहायत तो खंगारों से कन्वर्टेड है ही? लेकिन यही बात मिर्धा लोगो के ऊपर भी लागू होती है। क्योकि मिर्धा राजाओ का राजदण्ड लेकर चलते थे और राजाओ के आने की सूचना देने वाली जाति है कि,
बा मुलाहजा होशियार! अमुक महाराजा धिराज पधार रहे हैं।
पर जो लोग यही काम नबाबों के यहां करते थे उन्हें फारसी में नकीब कहा जाता था।
इस तरह से आरख,खंगार, दाहिया, मिर्धा एक ही आयुध जीवी जाति खंगार से ही है जो प्राचीन समय मे भी आयुध जीवी थे और वर्तमान में भी हैं।
जहा तक महाराज खेत सिंह खंगार की बात है तो वे गुजरात के खंगार राजा रूढ़देव के पुत्र थे जिनकी युवा वस्था में बहादुरी को देख महाराज पृथ्वीराज ने अपना सेनापति बनालिया था। उरई के मैदान में पृथ्वीराज चौहान और चन्देल राजा परिमर्द देव के बीच भीषण युध्द में जब चंदेलों का सामंत ऊदल खेत रहा एवं आल्हा तथा परिमर्द देव अपना महोबा राज्य हार कर कलीन्जर के किले में चले गए तो खेत सिंह के पराक्रम को देख महाराज पृथ्वीराज उन्हें महोबा का अपना सामंत बना कर दिल्ली लौट गए।
पर उसके 12 वर्ष बाद ही वे मारे गए। अस्तु खेत सिंह ने बाद में अपना स्वतन्त्र राज्य घोषित कर गढ़ कुंडार में किला बनबाया जहा उनकी 4 पीढ़ियों ने राज्य किया । चौथे पीढ़ी के राजा ( हुरमत सिंह) के समय मे उनके सेना पति सोहन पाल बुन्देला ने एक साजिस रच उनकी हत्या कर दी और राज्य छीन लिया। अस्तु हम लोग उस समय के ( डाहल क्षेत्र) से पन्ना सतना में आकर बसने के कारण यहां उसी प्रकार दहायत य दाहिया कहलाए जैसे अवध से आनेवाले स्वर्णकार (अवधिया) और कन्नौज से आने वाले कुशवाहा (कन्नौजिया) कहलाते हैं। बाद में यही से अन्य जिलों में गए।
दिनांक 27 दिसम्बर को हमारे पूर्व पुरुष महाराज खेतसिंह जी खंगार की जयंती है ।अस्तु उन्हें सत सत नमन करते है।
साथियों इतिहास में जिया नही जा सकता? सिर्फ उससे शिक्षा ली जा सकती है। जीना वर्तमान में ही सम्भव है। महाराज खेत सिंह खंगार का समय खङ्ग का था और उनने अपने उस तलवार के बलपर भूगोल रचा था। जिनका प्रतीक आज भी गढ़ कुंडार का किला सर ऊँचा किये खड़ा है ।
पर हमारे समय का अस्त्र अब कलम है। अस्तु हमें कलम से इतिहास रचने की जरूरत है। पर यह सब एक दूसरे के सहयोग से ही सम्भव है। हमें हर क्षेत्र की प्रतिभाओं को सम्बल देने की जरूरत है। क्योकि एक दो एक लभ्य की तरह भले ही अपना स्थान बना ले परन्तु अवसर के अभाव में बहुत सी प्रतिभाए भी कुंठित हो जाती हैं।
बस इतना कह कर आप सभी को प्रणाम।
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