खंगार संघ में दाहियों का प्रमुख योगदान
*।।इतिहास के पन्नों पर एक नजर ।।*
''*खंगार संघ में दाहियों का प्रमुख योगदान *''
‘’महाराजा
खेतसिंह खंगार 'जूदेव'
जन्म 27 दिसम्बर 1140 को गुजरात के कच्छ जूनागढ़ के शासक रूढ़देव खंगार के यहाँ हुआ था ।इनकी माता का
नाम रानी किशोर कुँवरबाई था ।खेत सिंह को बचपन से ही कुश्ती लड़ने और तलवार चलाने का शौक था ।युवावस्था में
निहत्थे ही शेर से लड़ते देखकर दिल्ली के बादशाह पृथ्वीराज चौहान इनकी वीरता से
प्रभावित होकर अपने साथ दिल्ली ले गए ।शेरपुर के जंगल में निहत्थे शेर को चीरने से
पृथ्वीराज चौहान ने इन्हे "सिंह" की उपाधि से विभूषित
किया। जिसे खेता खंगार 'खेत सिंह खंगार' नाम से
पहचाने गए ।इन्हे अपनी सेना का प्रधान सेनापति बनाया खेतसिंह ने प्रधान सेनापति
होने के बाद कई युद्ध लड़े उन योद्धाओं में दाहियों का प्रमुख दल भी शामिल
था, और विजयी होते रहे । सन
1182ई० में जब प्रथ्वीराज चौहान ने महोबे पर आक्रमण किया तो खेत
सिंह को समर का सहभागी बनाया इस युद्ध में खेत सिंह खंगार का अप्रितम शौर्य चंदेली
खड्ग झेल न सकी और जैजाक भुक्ति राज्य से चंदेल गौरव का सूर्य सदा सर्वदा के लिए
अस्त हो गया !
बैरागढ़ के मैदान में लड़े गए इस युद्ध में उदल मारा गया! आल्हा परमाल सहित मैदान छोड़ कर कालिंजर चला गया ! महोबा जीत लिया गया ! प्रथ्वीराज
ने विजय का श्रेय खेत सिंह को दिया और उनकी महत्वकान्छी में विजयी प्रदेश का अधिपत्य सौंपकर दिल्ली लौट गए !खेत सिंह ने महोबे की बजाय कुंडार में भव्य भवन का निर्माण
कराकर उसे अपनी राजधानी बनाया जो
गढ़ कुंडार नाम से विख्यात हुआ ! खेत सिंह ने राज्य प्रबंधन के लिए जुझारू नीतियों को
सर्वोच्च मानकर राष्ट्र धर्म का सृजन किया अपनी जुझारू नीतियों के चलते उन्होंने
चंदेल कालीन जेजाभुक्ति राज्य का जुझौती नामकरण किया !खजुराहो, कालिंजर, महोबा और कुंडार जुझौती के प्रमुख नगर थे ! प्रथ्वीराज चौहान के संरक्षण एवं खेत सिंह महाराज के
नेतृत्व में जुझौती एक ताकतवर प्रदेश के रूप में उभर कर शक्ति केंद्र बन रहा था
तभी मोहम्मद गौरी के आक्रमण में प्रथ्वीराज चौहान की पराजय होने से जुझौती के
उद्देश्यों को बड़ा भारी धक्का लगा किन्तु खेत सिंह महाराज ने जुझारू नीतियों के
परिपेक्ष्य में जुझौती को स्वतंत्र हिन्दू राज्य घोषित कर मुस्लिम सल्तनत को
चुनौती दे दी !
इधर राज्य की सुरक्षा, वीर संतति की
उत्पत्ति,
राष्ट्रीय भावनाओं के उदय ,पतितों के उत्थान एवं सम्मान के लिए अनेकानेक परम्पराएं और संस्कार जुझौती के
जनजीवन में डाली जो आज तक विद्यमान हैं ! महाराज खेत
सिंह खंगार ने चंदेल काल से चली आ रही नारी की भोग्या स्थिति को समाप्त कर उसे
राष्ट्र ध्वजा के रूप में स्वीकार कर पूजा का दर्जा दिया। उन्होंने वीर प्रसवनी
माताओं को विविध रूपों में शश्त्र थमा कर आत्म रक्षित किया खंगौरिया जहां महिलाओं
के लिए अनिवार्य आभूषण हुआ तो पुरुषों को भी खंगधारी बना दिया राज्य में धीवर से
लेकर ब्रह्मण तक और जमादारों से लेकर राजपूतों तक सभी वीरों और वर्गों को सम्मान
मिला जिसकी छाप आज भी समारोहों में देखने को मिलती है ! जुझौती का बच्चा बच्चा सैनिक हो इसके निमित्त जन्म के बाद
ही सीमा पर ले जाकर एक संस्कार की नीव डाली जो आज भी रक्कस के रूप में विद्यमान है
! राष्ट्रीय चिन्ह
तलवार ,राष्ट्रीय ध्वज लाल रंग के झंडे जो कि दुर्गों अर्थात किलों
के छतों में जीत कि निशानी को यशस्वी दिखने के लिए, राष्ट्रीय पेंड़ नीम व कदम को बनाया जो की एक खगोलीय संघ का निर्माण किया गया
जिसमे कई योद्धा महिलाओं का ग्रुप था ।और उनको प्रशिक्षण दी जाती थी की जिससे वह
अपने राज्य की और स्वयं की रक्षा कर सके ।और सबसे पहले महाराजा खेतसिंह खंगार जी
ने ही कन्या पूजन का कार्य बुंदेलखंड में शुरू किया था । जिस तलवार को
खेतसिंह के द्वारा राष्ट्रीय चिन्ह बनाया गया था खंगार संघ के समस्त शक्तियों के
पास तलवारे अभी भी पायी जाती हैं और खंगार संघ के दो प्रमुख योद्धा थे उनके घर के
सामने नीम का पेंड़ और कदम का पेंड़ पाया जाता था । खेतसिंह खंगार ने तारागढ़ की राजकुमारी के स्वयंबर में तलवार
के एक ही बार से शिला के दो टुकड़े करके राजकुमारी का वरण किया। सन-1191-92
में खेत सिंह खंगार स्वतंत्र राजा हुए और अपने राज्य का
विस्तार करके खंगार राज्य की नींव डाली। तथा गढ़कुंडार जुझौति को अपनी राजधानी बनाया। और खंगार राजवंश
की स्थापना की । यहाँ खंगारों का बनाया इतिहास प्रसिद्ध किला आज भी है।
महाराजा खेत सिंह खंगार जी के द्वारा कई किले जीते गए जिनमे से उरई का किला ,महोबा का किला, जूनागढ़ का
किला ,बैरागढ़ का किला, गढ़कुंडार का
किला आदि ।इन किलों को जीतने में दाहियों के बलशाली योद्धाओं का प्रमुख योगदान था ।महाराज खेतसिंह
खंगार के वंशजों
नेडाहल जुझौती पर लगभग २०० वर्षों तक यानि सन-1182 से 1347 तक इनकी पाँच
पीढ़ियों ने यहाँ शासन किया।इनका निर्वाण 30 अगस्त 1212
में हुआ ।''इस शासनकाल में महाराजा खेतसिंह की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि अपने पितामह रा खंगार के नाम पर खंगार संघ का निर्माण है।यह संघ मुख्यतः वीर लड़ाकों योद्धाओं का समूह था। इस संघ के वर्णों में से दाहियों
के कई योद्धा शामिल थे.. लेकिन इतिहास लिखा ना जाने के कारण ज्यादा वर्णन नहीं पाया गया है । खंगार संघ की कुलदेवी ''गजानन माँ''। जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह संघ सभी राजपूत योद्धाओं तथा अन्य योद्धाओं का समूह है जो आज भी मौजूद है,जो अब खंगार जाति के नाम से जाना जाता है । ई.स.1347 में इसी संघ ने मो.तुगलक से लगातार नौ माह तक लोहा लिया ।अंततः वांदी पुत्रों के तुगलक से मिल जाने पर खंगार संघ की हार हुई ।महारानियों ने जौहर किया ।और वीर जुझौती से खंगार राजवंश का अंत हो गया किन्तु आज भी लोक कथाये, लोक परम्पराएं, लोक साहित्य और खंगार भुपतिओं की अमर कृति गढ़ कुंडार बड़े ही गौरव से खंगारों की कीर्ति का गान करते हैं ।और संघ के शेष बचे सदस्य जंगलों में बागी जीवन जीने में मजबूर हो गए । परन्तुं किसी की गुलामी मंजूर नहीं की । तथा अब यह संघ 'खंगार जाति' के नाम से जाना जाता है ।और जहाँ जैसे जिस क्षेत्र में गए कई अपने को छुपाने के लिए कई सरनेम लिखने लगे जिनमे राय,परिहार,मिर्धा संघ में शामिल विभिन्न योद्धाओं की सूची... खंगार राजपूत वंश में प्रचलित जातीय बैक(टाइटल ) खेंगार(गुजरातमें )खांगर (राजपूताने में)और खंगार(जुझौतिखण्ड वर्तमान बुंदेलखंड म.प्र.में ) को छोड़कर क्योंकि मूलतः ये तीनो शब्द एक ही हैं सिर्फ क्षेत्रीय भाषाओं का अंतर है। *खंगार संघ* परिहार,जादौन,मंडल,सिंह,ठाकुर,राजपूत,दाहिया,गहलौत,चौहान,विश्वास,कौशिक,वशिष्ठ,तोमर,राणा,तंवर, सिशोदियाँ,खड़ग,बुंदेला,कश्यप,गहरवार,पाण्डे,जुझौतियाँ,सूर्यवंशी,चंद्रवंशी आदि । महाराजा खेतसिंह खंगार द्वारा बनाये गए इस 'खंगार संघ' में (सूर्यवंशी जो कि आरख,अरख, अर्कवंशी जो की इन्हे शादियों में पालकी के आंगे अंगरक्षक के लिए जिम्मेदादारी दी जाती थी) ये भी खंगार संघ के महान योद्धाओं में गिना जाता था ।,चंद्रवंशी,अग्निवंशी,सभी क्षत्रिय योद्धा शामिल रहे। इस बीच में मुसलमानों के कई हमले जुझौति पर हुए, परंतु दीर्घ काल तक कभी भी यह प्रदेश मुसलामानों की अधीनता में नहीं रहा। कुंडार का अंतिम खंगार राजा हुरमतसिंह था। उसकी अधीनता में कुछ बुंदेले सरदार भी थे। सोहनपाल के भाई, माहौनी के अधिकारी भी ऐसे ही सरदारों में थे। सोहनपाल के साथ उनके भाई ने न्यायोचित बरताव नहीं किया था, इसलिए उनको कुंडार-राजा से सहायता की याचना करनी पड़ी। उनका विश्वस्त साथी धीर प्रधान नाम का एक कायस्थ था। धीर प्रधान का एक मित्र विष्णुदत्त पांडे उस समय कुंडार में था। पांडे बहुत बड़ा साहूकार था। उसका लाखों रुपया ऋण हुरमतसिंह पर था-शायद पहले से पांडे घराने का ऋण खंगार राजाओं पर चला आता रहा हो। धीर प्रधान अपने मित्र विष्णुदत्त पांडे के पास अपने स्वामी सोहनपाल का अभीष्ट सिद्ध करने के लिए गया। हुरमतसिंह अपने लड़के नागदेव के साथ सोहनपाल की कन्या का विवाह-संबंध चाहता था। यह बुंदेलों को स्वीकार न हुआ। उसी जमाने में सोहनपाल स्वयं सकुटुंब कुंडार गए। हुरमतसिंह के पुत्र ने उनकी लड़की को जबरदस्ती पकड़ना चाहा। परंतु यह प्रयत्न विफल हुआ। इसके पश्चात् जब बुंदेलों ने देखा कि उनकी अवस्था और किसी तरह नहीं सुधर सकती, तब उन्होंने खंगार राजा के पास संवाद भेजा कि लड़की देने को तैयार हैं; साथ ही विवाह की रीति-रस्म भी खंगारों की विधि के अनुसार ही बरती जाने की हामी भर दी। खंगार इसको चाहते ही थे। मद्यपान का उनमें अधिकता के साथ प्रचार था। विवाह के पहले एक जलसा हुआ। खंगारों ने उसमें खूब शराब ढाली। मदमत्त होकर नशे में चूर हो गए। तब बुंदेलों ने उनका नाश कर दिया। यह घटना सन् 1228 (संवत् 1345) की बतलाई जाती है। बुंदेलों के पहले राजा सोहनपाल हुए। उनका देहांत सन् 1299 में हो गया। उनके बाद राजा सहजेंद्र हुए और उन्होंने सन् 1326 तक राज्य किया। इस प्रकार बुंदेले कुंडार में अपनी राजधानी सन् 1507 तक बनाए रहे। सन् 1507 में बुंदेला राजा रुद्रप्रताप ने ओरछे को बसाकर अपनी राजधानी ओरछे में कायम कर ली। सहजेंद्र की राज्य-प्राप्ति में करेरा के पँवार सरदार पुण्यलाल ने सहायता की थी। इसके उपलक्ष्य में सहजेंद्र की बहिन, जिसका नाम उपन्यास में हेमवती बतलाया गया है, और राज्य के भाट के कथनानुसार रूपकुमारी था, पँवार सरदार को ब्याह दी गई। उपन्यास में जितने वर्णित चरित्र इतिहास-प्रसिद्ध हैं, उनका नाम ऊपर आ गया है। मूल घटना भी एक ऐतिहासिक सत्य है, परंतु खंगारों के विनाश के कुछ कारणों में थोड़ा-सा मतभेद है। बुंदेलों का कहना है कि कुंडार का खंगार राजा हुरमतसिंह जबरदस्ती और पैशाचिक उपाय से बुंदेला-कुमारी का अपहरण युवराज नागदेव के लिए करना चाहता था। खंगार लोग अपने अंतिम दिवस में शराबी, शिथिल, क्रूर और राज्य के अयोग्य हो गए थे, इसलिए जान-बूझकर वे विवाह-प्रस्ताव की आग में शराब पीकर कूदे, और खुली लड़ाई में उनका अंत किया गया। इसके बाद चापलूसों द्बारा गढ़कुंडार से राजधानी हटा कर ओरछा राजधानी बना कर जुझौत खंड का नाम बदल कर बुंदेल खंड कर दिया गया...! शेष बचे खंगार संघ अपने गृह राष्ट्र गुजरात जा रहे थे कुछ तो रास्ते मे राज्यस्थान मे बस गये तथा कुछ....अपनी आन बान शान तथा सम्मान बचाने के उद्देश्य से तूमेन (अशोकनगर) के जंगलों मे बस कर बागी जीवन जीने पर मजबूर हो गये..तथा धीरे धीरे सामाजिक मुख्यधारा से दूर होते चले गये...! लेकिन देश भक्ति का जज्बा कम नही हुआ......! देश भक्ति का जज्बा एक बार फिर 1847 की कृांति में दिखाई दिया! जिसमे पिछौर के बागी ठाकुर लंपूसिंह खंगार ने अग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे.....! तभी अंग्रेजो ने परेशान होकर सन् 1871 में एक क्रूर कानून पास किया जिसे कृमिनल ट्राईब्स एक्ट कहा गया...! जिसके अंतर्गत खंगार व दाहियों को प्रतिबंधित कर दिया गया.....! जिसके अंतर्गत एक गाँव में एक ही खंगार व दाहिया परिवार को रहने की इजाजत दी जाति थी! कृमिनल जाति का नाम दे दिया गया था...! तथा बगाबत से परेशान होकर चौकिदार (कोटवार) का पद दे दिया जाता था! जिसमे गाँव की सुरक्षा इनके हाथ मे दे दी जाति थी...! बहुत भॉति प्रयास किया गया शत्रुओं द्बारा खंगारों संघ की हस्ती मिटाने का....सत्य परेशान हो सकता है पराजित नही......! आखिरकार 31 अगस्त 1952 को खंगार व दाहियों को भी कृमिनल ट्राईब्स एक्ट से मुक्त कर दिया गया.....! विभिन्न क्षेत्रों मे स्थापित हो गये तथा विभिन्न उपजातियो के रूप मे जाने जाते हैं...!खंगार राज वंश के पराभव के पश्चात बचे हुए कुछ लोग वहां से पालयन करने लगे। ‘’इतिहास हमेशा विजेता का होता है विजित का नही।‘’ वह लोग वहां से पालयन कर बिभिन्न क्षेत्रो में बस गए । आफत के मारे थे तो कही से मदद की भी उम्मीद नही थी।आयुध जीवी व स्वभाव से लड़ाकू होने के कारण और कोई कार्य तो उनके बूते का था ही नही ? अस्तु पहले राहजनी और बाद में त्रस्त राजाओ से समझौता कर के छोटी मोटी नोकरी ही उनके जीवन यापन का आधार बनी।काम के आधार पर राजाओ का राजदण्ड लेकर आगे आगे चलने के कारण कही मिर्धा कहलाए तो ग्राम के सतर्कता का कार्य करने के कारण कही चौकसी दार । कही क्षेत्र के आधार पर डाहाल क्षेत्र में निवास के कारण वे दहायत दाहिया कहलाए तो कही सर नेम बदल राय कहलाने लगे।राजाओ का राजाश्रय तो मिला किन्तु यह लड़ाकू खंगार राज्य वंश से सम्बद्ध जाति कही पुनः कोई षणयंत्र रच कर राज सत्ता न छीन ले? अस्तु राजाओ ने पूरी पूरी सतर्कता बरतते हुए। इन्हें एक गाँव मे एक ही परिवार के बसने की अनुमति दी।
‘इसमें गढ़कुंडार पतन के बाद ''दाहिया'' लोगो ने डाहल क्षेत्र में अपना निवास का आश्रय बनाया जिससे मुगलों के द्वारा दहायत, दहात, का नाम दिया गया। और अशिक्षित होने के कारण लोगों ने अपने नाम के साथ दहात, दहायत लिखना शुरू कर दिए। और ग्राम रक्षक का काम मुगलों द्वारा इनके जीवन यापन के लिए दे दिया गया । जो कि धीरे-धीरे कोटवारी के काम में परिवर्तित हो गया।और यह काम कई पीढ़ियां करती आयीं । शिक्षा का आभाव होने के कारण क्षत्रिय दाहियों का शोषण होता रहा। लेकिन जैसे-जैसे शिक्षा का अग्रसर (आगमन) हुआ वो अपनी मूल जाती दाहिया में परिवर्तन किया।
'साथियों ये सामाजिक व ऐतिहासिक जानकारी कई इतिहासकारों के द्वारा लिखी गयी किताबों का संक्षिप्ति मात्र है । लेकिन हमने जो भी जानकारी जुटाई है ये ऐतिहासिक लिखे पन्नों के संकलन के साक्ष्यों के आधार पर पूर्ण रूप से सत्य है ।और ये ऐतिहासिक संकलन दाहिया समाज के गौरव ‘’पद्मश्री बाबूलाल दाहिया (कविजी)’’ के नेतृत्व व मार्गदर्शन में किया गया है । जिनमे से-(1)किला गढ़कुंडार-डॉ.घनश्याम ठाकुर (2)गढ़कुंडार-बृंदावलाल बर्मा (3) क्षत्रिय राजवंश-रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी आदि।
निष्कर्ष -: सामाजिक एकता व अखण्डता को ध्यान में रखते हुए दाहिया समाज का इतिहास का गौरव की गाथा को यादगार के रूप में हर वर्ष 04 मार्च को महाराजा राणा चच्चदेव सिंह दाहिया की जयंती व हर वर्ष 27 दिसम्बर को महाराजा खेतसिंह खंगार जी की जयंती का आयोजन पुरे हर्षोंउल्लास के साथ मनाया जाता है । और इन महापुरषों की जयंती मनाकर हमारा दाहिया समाज एकता की शपथ लेता है । और अपने आप को गौरान्वित करता है की हमारे महापुरषों ने समाज की रक्षा,एकता व अखंडता के लिए अपने प्राण की आहुति दे दी ।
विनय सिंह दाहिया (कुणाल)
ग्राम+पोस्ट -धौरहरा तहसील-अमरपाटन
जिला-सतना (म.प्र.) -7999585119
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